चंडीगढ़, 19 सितंबर :
पंजाब विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग ने दो व्याख्यानों ‘दयानन्द सरस्वती की वेदार्थ पद्धति’ और ‘वेदाध्ययन की दिशाएँ’ का आज 19.9.23 को आयोजन किया। इन व्याख्यानों का आयोजन स्वामी दयानन्द सरस्वती की 200वीं जन्मजयन्ती के उपलक्ष्य में किया गया। व्याख्यानों के वक्ता थे नई दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रो. सुधीर कुमार आर्य। इन व्याख्यानों में विभाग के और दयानन्द वैदिक अध्ययन पीठ के अध्यापकों, शोधछात्रों व छात्रों ने भाग लिया। प्रो. सुधीर कुमार आर्य ने अपने व्याख्यान के आरम्भ में वेदार्थ के बहु-आयामी होने के विषय में बताया। उन्होंने कहा, “कालिदास आदि के लौकिक साहित्य से भिन्न वैदिक मन्त्रों की सन्दर्भ के अनुसार अनेकों व्याख्याएँ हो सकती हैं।” वेदों को समझने की विधिवत् प्रक्रिया बताते हुए प्रो. आर्य ने कहा, “महर्षि दयानन्द सरस्वती ने बल देकर यह कहा था कि वेदों को समझने के लिए सबसे पहले शिक्षा, व्याकरण, निरुक्त आदि वेदांगों को सीखना आवश्यक है।” प्रो. आर्य ने वेदों से कुछ उदाहरण दर्शकों के सामने रखे। उन्होंने कहा, “ऋग्वेद के प्रथम मन्त्र में अग्नि शब्द का अर्थ केवल जलने वाली आग नहीं, अपितु वह कोई प्राणी या तत्त्व भी है जो हमें वृद्धि व समृद्धि की ओर ले जाता है।” प्रो. आर्य ने यह भी कहा, “इसी प्रकार यज्ञ की अवधारणा बहुत विस्तृत है, जहां केवल अग्नि में आहुतियाँ डालना ही यज्ञ नहीं होता, किन्तु एकता से युक्त समाज के रूप में रहना भी यज्ञ का पारिभाषिक अर्थ है।”
संस्कृत विभाग के ऐकडेमिक इंचार्ज प्रो. वी. के. अलंकार ने धन्यवाद ज्ञापन दिया। उन्होंने वेदार्थ को समझने के लिए विभिन्न वेदभाष्यों के अध्ययन की बात कही। उन्होंने कहा, “यह आवश्यक है कि वेदभाष्यों को लेकर तुलनात्मक अध्ययन होना चाहिए, उनका तार्किक विश्लेषण कर जो अर्थ सबसे उत्तम लगे, उसे ग्रहण किया जाए।”